ममत्व, ममता, ईश्वर/परमात्मा/खुदाह/गॉड, धर्म, गुस्तगू-चाहतें ये सारी हमारे अनंत सोचकी मनो श्रृंखला महसूस होती हैं।
१९५४ सालकी बात है. बड़ोदा के दांडियाबाज़ार में पैदल घूमते हुऐ, रास्ते के किनारे बैठे एक फ़क़ीर ने हमें पुकारकर सहजता से आदेश दिया “ यार, तू खामोंखा ज्यादा सोचा मत कर “।
आजभी, उस फ़क़ीर का चेहरा और आदेश याद है हमें।
२०१२ सालमें, नागपुर में हमारे डेंटिस्ट के ऑफिस के नजदीक खड़ा एक ऊंचा-पूरा फ़क़ीर हाथ में बड़ा कटोरा लिए, खड़ी आवाजमें आरजू कर रहा था “ ए अल्लाह, जो दान दे उसे दुआ दे, और ए अल्लाह जो दान ना दे, उसे भी दुआ दे। आजभी, उस फकीरकी आरजू गूँज रही है कानोंमें ।
फिल्म स्टार, जॉनी वॉकर ने गाया,
सर जो तेरा चकराये, दिल डूबा जाये,
आजा प्यारे पास हमारे ~~~~ चम्पी, मालिश।
जिंदगीका उसूल है यारों, बड़ी-बड़ी और ऊंची-ऊंची पांडित्य बातें, और छोटासा दिल, इन दोनों का संगम असंभव होता है ।
ममत्व के कारण हम खुदसे, अपने शरीर-बंधन से, और दुनियासे जुड़े रहते हैं, और वही हमारी पहचान हो जाती है; जिसमें खुदको खोनेका सदा डर भरा रहता है; वही मृत्यु का भय होता है। मृत्यु है एक नैसर्गिक परिवर्तन।
जबतक हमारा ममत्व छूटता नही, जिंदगीके बंधन नही छूटपाते ।
अफसोस है कि हमारे कैदखाने/जेल के दरवाजे खुले होकर भी, हम आझाद नही हो पाते। इसीका नाम होगा “ जिंदगी और जनम जनम के फेरे “ .
नैसर्गिक जीवों की अनासक्त भावसे, तन-मन सेवा के तलेही, अथवा, माँ के पैरों तलेही,
स्वर्ग/भिश्त की अनादि-अनंत आझादी है।
तीर्थयात्रा/हज्ज/pilgrimage, एक स्थलीय ( stepless ) अन्तर्यामी यात्रा है। ये शब्द हैं ऋषी-फ़क़ीरोंके जिन्होनें इस यात्रा को आझमाया है।
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