मैं ना मुल्ला ना ईमाम, सिर्फ इबादत का अहेसास और अहसान।
खुद् और खुदाह दोनों एक ही नन्नीसी रियासतकी शराफत है,
जैसे फूल और उसकी खुशबू;
जिसे रोजाना खोजा नही जाता, सिर्फ आझमाया जाता है।
इन दोनों में कोई फासला है नही, सिर्फ महसूस होता है।
हमारी माँ के पैरों तलेही, भिश्त है। माँ की सेवा में।
जहन्नम, हमारे अनहोनी डरपोँकी की खोज।
खुद कि असली पहेचान, हमारे दिलके अंतरिक भावसे होती है।
दान-धर्म सिर्फ दुनिया का एक दिखावा होता है,
खुदकी भूल-भुलैय्या है, बेवकूफी की तादाद में,
जो लगातार माँगोंसे से सदा भरी होती है।
दान देनेके पीछे, अंतरभाव कि पहचान खुदकी स्वाभाविक पहचान दिलाती है। दान देनेके पीछे, तीन तरः के अलग अलग भाव हो सकते हैं; हरेक कि रियासत अलग होती है।
रजोगुणी, तमोगुणी, और सद्गुणी ये तीन अलग भाव हैं।
रजोगुण - खुदके अहंकार से सदा भरा होता है, उदाहरण “ यह दान मस्जिद और अल्लाहताला के लिये मैने दिया है। “
तमोगुण - सिर्फ खुदके लिए सदा मांग या मांगें होती हैं।
रजो और तमो गुणोंमें अहंकार महसूस होता है।
सद्गुण - बिना शर्त समाज की तन, मन और धनसे सेवा, और इबादत की खामोशीमें फरमाये “ अल्लाहताला तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा। “
आतंकवादी और आतंकवाद की रियासत होती है,
खुदसेही अनजाने नफ़रत और शिकायतों की जंजीरें,
जिसकी चाबी खो जाए।
आतंकवाद, खुदके शिकायतों की लगातार बरसात,
जिसका गीलापन सदा दिलमें बू कि रियासत बन जाती है।
आतंकवादसे दूसरों को जीवन के सबक सिखलानेकी जरूरत नहीं, जब हम खुद खुदकोही जिंदगीके सुहाने सबक दे नहीं पाते।
हमेशा याद रहे यारों,
इंसान और उनकी इंसानियत, जीवन की लालसाके बेटे और बेटियां हैं। They are the sons and daughters of Life’s longing for itself … कहे गए मशहूर सूफी, खलील गिब्रान। उसी अंदाज में Life has its own longing to fulfill itself in various different ways...जीवन को विभिन्न तरीकों से स्वयं को पूरा करने की अपनी इच्छा / ख्वाईश होती है।
खुद और खुदाहकी, एकही पहचान होती है,
जो सिर्फ आझमाई जाती है।
खुदाह मस्जिद, मक्का और मदिना की दीवारोंमें कैद नही।
खुदाह, हमरेहि ईमानदार दिल और जिसममें हमेशा मौजूद है,
जिसके खुशबू की आझादी सिर्फ आझमाई जासकती है।
इसी अंदाज में Pilgrimage is a stepless journey within. तीर्थयात्रा एक अन्तर्यामी स्थलीय यात्रा है; वही हज्ज है।
इस्लाम कोई अनजान सोचकी भूलभुलैय्या नहीं, ना सिर्फ किताब के लब्ज़।
इस्लाम एक इबादत है, खुद और खुदाह की असली पहचान आझमाने ।
हरेक इंसान के इंसानियत का खून, लाल रंग ही होता है।
वो मुसलमान, हिन्दू, ईसाई, यहूदी या और कोईभी हो।
अल्लाहताला सबके लिए एकही होता है, अलग अलग नामों से।
नाम, शक्लें और सोच अलग, सिर्फ इंसानोंकी होती है।
हरेक इंसान का फर्ज है, खुदपर दया करें और जुल्म ना करें,
अनहोनी आतंकवादी ना बनिए,
सच्ची स्वतंत्रता की भावना में, और खुदके सोच की रियासत में, खुद की असली पहचान आझमाए।
खुद और खुदाह, एक दूसरे की परछाइंयाँ है। आझमाँऐं।
ऊँचेसी ऊंचीं, अहंकारसे भरी इंसान की शिकायतें होती हैं।
गहरी से गहरी, सिर्फ हमारी इबादत।
इबादत में सत्संग होता है, केवल सद्विचारोंका नशा, संग और रंग।
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