Tuesday, March 14, 2017

इश्क का उसूल और दरबार






दुनिया में जो कुछ आँखों से दिखता है, वो होता है केवल रूप।
जो नजरिया से दिखता नही, वो स्वरुप होता है।  
आत्मस्वरुप माध्यम में, खुद की और खुदा की असली पहचान होती है।  
ये दो नहीं, एकही है; आझमाना होता है।
ईश्वर, गॉड या खुदा, ना कोई नर ना मादी;
सिर्फ एक गहरी सोच है।


इसी सोचकी खामोशीमें,
काशी-वृंदावन, मक्का-मदीना और जेरूसलेम का त्रिवेणी संगम है।
इस त्रिवेणी संगम में ना है
नरक ना स्वर्ग, नही कोई हेवन ना हेल, और ना कोई भिश्त ना जहन्नम।  
ना कोई किताब और अँध विश्वास की जरूरत।
आकाश में चंद्रमा और सितारे हमारे लगातार गवाह हैं।
और दिनके नीले गगन में, सूरज की किरणें।
निर्वाण मनः स्थिति का समागम है।


अफसोस है यारों,
जो नाचना ना जाने,
वो कहे आँगन टेढा।  


सूफी, संत, और इश्क जब आत्मखुशियें में गाए और नाचे,
ना लागे कोई किताब, अंगना, ना समय का बंधन।   
मछली सदा जलके नीचे तीरे और जीए,
और इंसान की इंसानियत सदा जल के ऊपर।  
ये उसूल है इश्क का।  


जीओ यारों, खुशियोंकी जिंदगी।
गुलाब के सिर्फ कांटे ना देखो, वो चुभते रहेंगे;
उसकी खुशबू आझमाओ।


कमलफूल और उसके भँवरे के रिश्ते जैसा,
रोजाना दुनियामें जीया करो यारों।   
जिंदगी है एक पलभरकी,
जिसमें जिंदगी ना आती है और ना जाती।




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