Sunday, November 19, 2017

मन की जंजीरें और मजबूरियां ~~





मन की जंजीरें और मजबूरियां,
अफसोस है, इसी का नाम बन जाता है जीवन।  


हरेक भाषा इन्सान ने फ़र्माई है; वो कोई भगवान/अल्लाह/गॉड की आकाश वाणी नहीं।  
हरेक भाषा खुदकी सोचको आझमाँने की चाहत रखती है।     
खुद्द और खुदाह/गॉड/ईश्वर, यह खुद की असली वैश्विक पहचान का मसला है, एक अनभूति है।  
ऊस अनुभूती को प्राप्त होना, जिंदगी की अंतर्यामी प्यास और पुकार होती है।   


गुरू और सद्गुरू में गहरा फर्क होता है।   
गुरू, ज्ञान और अज्ञान की परिभाषा सिखाते हैं।
गुरू किताबें पढ़कर, मंच से दूसरों को आदेश देते है;  
जैसे पंडितजी का अन्तर्यामी ध्यान बिना पांडित्य,
मिशनरी और मुल्लाह का दूसरों को धर्म परिवर्तन करने का अखंड प्रयास।  
सद्गुरू वो होते है, जो आत्मज्ञान अनुभूति को प्राप्त हुए है।
सद्गुरू की उपस्थिति में, हमारी नजरिया झुकती है बदन के साथ।   
अनुभूति है जीवन और फूलों के बहार की खुशबू। सत्चिदानंद स्वरूपः।  
अमर बेल बिन मूलकी, प्रति पालत है ताहि, ये कबीर साहब के अनमोल बोल हैं।  


जीवन, सुखः और दुखः की भट्टी है,
इस भट्टी में भूने बिना, जीवन इंसान नहीं बनता।
इंसान के इंसानियत में ही, ईश्वर/गॉड/अल्लाह बसा हुआ है।    


कर्म और धर्म संयोग ये जीवन की एक गहरी सोच है, सिद्धांत है, उसूल  है।   
जैसे गेंद को दीवाल की तरफ फेंको, तो दीवाल से टकराकर गेंद हमारी ओर वापस लौटती है।
वैसेही जैसा कर्म करो तो उसका फल जुगलबंदी जैसा मिलता है।  
निर्मल पुण्य कर्मोंसे हम पुण्यवान बनते हैं, और अशुभ कर्मोंसे हम हैवान बनते हैं।
शुभ और अशुभ कर्म, अपनी अपनी सोच होती है,
परन्तु जिंदगी उसे शब्दों का खेल नहीं बनाती।  


जिंदगी की एक ही सुसंस्कृत परिभाषा है,
जो है परम मौनव्रत की शांतता जिसे सद्गुरु अपनाते हैं।  
सद्गुरू की दया और करुणा दृष्टी हमें जिंदगी के उसूल सिखलाती है।  


खुद, खुदाह, ईश्वर, अल्लाह या गॉड एकही सोच है, एक ही अनुभूति है।  
परम सत्य की अलग अलग परिभाषा हो सकती है,
परन्तु परम सत्य एकही है , एकही अन्तर्यामी और शांतिस्वरुप अमुभूती है।   


मराठी भाषा में अन्तर्यामी सोच को नीचे प्रधान किया है।  
मानस सरोवरा काठी स्वयंसिध्द होऊन, काही साधक आत्मस्वरूपास प्राप्त होऊन गेले।
प्रत्येर्क मानवाचे मानस सरोवर, मूलतः वसती स्वतःच्याच अंतःकरणी।


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