Thursday, July 6, 2017

ख़ुद और ख़ुदाह






ख़ुदको ऐनेमें देखो, तो ख़ुदकी शकल नजर आती है।  
नजरियासे जो दिखाई देता है, वो रूप होता है।  
जो नजरियासे दिखता नहीं,
परन्तु हमेशा महसूस होता है, वो ख़ुदाह स्वरुप।


ख़ुदाह, इंसानके  इन्सनियतकी असली पहचान है।  
वो अनजान चार दिवारोंके बीच, कैद नहीं हो सकता ।
ख़ुदाह ना मर्द और ना मादि। शान या शौरत नहीं।  
ख़ुदाह, कोई किताब नहीं।
सिर्फ खुदकी असली पहचान है ।   


मुसलमान गाए, अल्लाह हूँ ~~ अल्लाह हूँ ~~ की धुनमें।
सूफी गाए, सिर्फ हूँ ~~ , हूँ ~~ , हूँ ~~ की धुनमें।  
दो नजरिया, एकही मंझिल, एकही दास्ताँ ।  


खुदकी असली पहचान, किसीभी डरकी शिकार नहीँ।  
ना जनम ना मौत, और ना जहन्नम ना भिश्त।
खुदकी असली पहचान, सिर्फ आझमाई जाती है।  
ख़ुदाह कोई किताब नहीं। सिर्फ इबादत होती है।  
इबादत में एकदूसरेसे, कुछ लेना ना देना।
इबादत में खुद और ख़ुदाह दो नहीं, सिर्फ एकही है।  


चाँद, सूरज, और सितारे जितने गौरसे हमारे दृष्टा हैं,
उसी दृष्टाभावासे, हम उनको सदा आझमायें ।
इंसानियत, हम सब लोगोंका एकही धर्म है।  
इंसानियत कोई किताब नहीं; सिर्फ निर्मल मनसे जीनेका ढंग है।


जीवनकी एकही इबादत हो। एकही पैगाम हो।   
यही हमारे जीवनकी असली साक्षरता हो।  


सिर्फ मस्जिदके मुल्लाह, मंदिरके पंडित, या घण्टाघरके पाद्री ना बनो,
खुदकेही बदन और हैसियतमें, सिर्फ निर्मल इंसान बनो।  
यही है असली हज्ज और असली भिश्त की दास्ताँ।  

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