अलग ज़माने , अलग शायर ,एकही खयालका खजाना ……
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सूफी फ़कीर, किसीके पीछे भेड़िओं जैसे भागते नहीं। जीतेहैं उस शराबके नशेमे, जो नशा कभी उतरता नहीं।
इन शायरोंकी शायरी सुनलो , मन में समालो।
कबीर ( 1440-1518 )
गालिब (१७९७-१८६९)
इकबाल (१८७७-१९३८)
फराझ (१९३१ - २००८ )
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कबीरा ( 1440-1518 ) गाये,
सुनो भाई साधो (पूजा और साधना करने वालों ),
मेरे जमीनसे निकले कपाससे , मैंने धागा ताना ( spun ) खुदके हाथोंसे
मेरी सुन्दर जीवन चदरिया बूनी मैने, मेरे रंग-बिरंगी धागोंसे !
The free spirit of Kabirs message may be encapsulated equally beautifully in English:
“ I have woven this colorful fabric of life, using my own yarn spun out of staple fibers grown on my fields”. Self-Revelation ( आत्म बोध ) seemed to be Kabir’s theme.
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ग़ालिब ने एक शेर फरमाया , १९०० सदीमें :
झईद शराब पीनेदे मस्जिदमें बैठकर,या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं।
इक़बालके मनमें ,गालिबका शेर जचा नहीं। उन्होंने फरमाया :
मस्जिद खुदा का घर है, पीनेकी जगह नहीं ,
काफ़िरके दिलमें जा, वहाँ खुदा नहीं।
फिर १९०० सदीके आखरी समय में, शायर फ़राज़ ने आझमाँया :
काफ़िरके दिलसे आया हूँ , मैं ये देख कर फराझ, खुदा मौजूद है वहाँ , पर उसे पता नहीं।
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